द्वारका का इतिहास, कैसे डूबी पूरी द्वारका, जानिए कैसे हुआ द्वारकापुरी का निर्माण

कथाओं में कहा जाता है भगवान विष्णु जब चारों धामों पर बसे अपने धामों की यात्रा पर जाते हैं तो हिमालय की ऊंची चोटियों पर बने अपने धाम बद्रीनाथ में स्नान करते हैं। पश्चिम में गुजरात के द्वारका में वस्त्र पहनते हैं। पुरी में भोजन करते हैं और दक्षिण में रामेश्वरम में विश्राम करते हैं।

द्वारका का इतिहास, कैसे डूबी पूरी द्वारका, जानिए कैसे हुआ द्वारकापुरी का निर्माण

कथाओं में कहा जाता है भगवान विष्णु जब चारों धामों पर बसे अपने धामों की यात्रा पर जाते हैं तो हिमालय की ऊंची चोटियों पर बने अपने धाम बद्रीनाथ में स्नान करते हैं। पश्चिम में गुजरात के द्वारका में वस्त्र पहनते हैं। पुरी में भोजन करते हैं और दक्षिण में रामेश्वरम में विश्राम करते हैं। भगवान श्रीकृष्ण के भक्तों के लिए केवल मथुरा-वृंदावन ही नहीं, बल्कि पश्चिम दिशा में स्थित द्वारकापुरी भी एक पवित्र तीर्थ स्थल है।

मथुरा ने निकलकर भगवान श्रीकृष्ण ने द्वारका क्षेत्र में पहले से स्थापित खंडहर बने नगर में एक नया नगर बसाया। भगवान कृष्ण ने अपने पूर्वजों की भूमि को फिर से रहने लायक बनाया। सनातन धर्मग्रंथों के अनुसार इस नगरी को 5000 साल पहले भगवान श्रीकृष्ण ने बसाया था, यह उनकी कर्मभूमि है। कृष्ण मथुरा में पैदा हुए पर वहां के लोगों को कंस के अत्याचारों से मुक्ति दिलाने के लिए उन्होंने द्वारकापुरी नामक सुंदर, सुव्यवस्थित और शांतिपूर्ण नगर का निर्माण किया।

फिर उन्होंने पांडवों को सहारा दिया और महाभारत के युद्ध में धर्म को विजय दिलाई। उस काल में द्वारकापुरी भगवान श्रीकृष्ण की राजधानी थी। जिस स्थान पर उनका निजी महल और हरिगृह था, वहां आज द्वारकाधीश मंदिर है। इसलिए कृष्ण भक्तों की दृष्टि में यह एक महान तीर्थ है। वैसे भी द्वारका नगरी आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित देश के चारों धाम में से एक है।

यही नहीं, द्वारका नगरी पवित्र सप्तपुरियों में से भी एक है। मंदिर का वर्तमान स्वरूप 16 सदी में प्राप्त हुआ। द्वारकाधीश मंदिर के गर्भगृह में चांदी के सिंहासन पर भगवान कृष्ण की श्यामवर्णी चतुर्भुज प्रतिमा विराजमान है। यहां उन्हेंरणछोड़जीभी कहा जाता है। भगवान हाथ में शंख, चक्र, गदा और कमल लिए हुए हैं। बहुमूल्य आभूषणों और सुंदर वेशभूषा से श्रृंगार की गई प्रतिमा सभी को आकर्षित करती है। 

मंदिर से जुड़ी कथा:

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द्वारकापुरी स्थित मंदिर के बारे में ऐसी मान्यता प्रचलित है कि मूल मंदिर का निर्माण भगवान कृष्ण के प्रपौत्र वज्रभान ने करवाया था। मंदिर को वर्तमान स्वरूप 16वीं शताब्दी में दिया गया था। इस मंदिर से 2 किमी. की दूरी पर रुक्मिणी देवी का मंदिर है, जिसकी स्थापत्य कला अतुलनीय है। यह मंदिर एक परकोटे से घिरा है, जिसमें चारों ओर कई द्वार हैं। इसकी उत्तर दिशा में मोक्ष-द्वार तथा दक्षिण में प्रमुख स्वर्ग-द्वार स्थित है। इस सातमंजि़ला मंदिर का शिखर 235 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है, जिस पर करीब 84 फुट ऊंची बहुरंगी धर्म-ध्वजा फहराती रहती है। द्वारकाधीश मंदिर के गर्भगृह में चांदी के सिंहासन पर भगवान श्रीकृष्ण की श्यामवर्णी चतुर्भुजी प्रतिमा विराजमान है, जिसमें वह अपने हाथों में शंख, चक्र, गदा और कमल धारण किए हुए हैं। ऐसी मान्यता है कि मथुरा में कंस के हिंसक व्यवहार से लोगों को बचाने के लिए भगवान श्रीकृष्ण समस्त ग्रामवासियों और गउओं को अपने साथ लेकर द्वारकापुरी की ओर प्रस्थान कर गए थे। इसी वजह से उनके भक्तजन उन्हें प्यार सेरणछोड़ जीकह कर बुलाते हैं।

भेंट द्वारका:

भेंट द्वारका ही वह पवित्र स्थल है, जहां भगवान ने अपने प्रिय भक्त नरसी को धन-धान्य से पूर्ण कर दिया था। वर्षों बाद भगवान श्रीकृष्ण अपने बाल-सखा सुदामा से दोबारा यहीं मिले थे। इसी वजह से इस स्थल का नामभेंट द्वारका पड़ा। इस मंदिर का अपना अन्न क्षेत्र है। यहां आने वाले भक्त जन ब्राह्मणों को दान स्वरूप चावल देते हैं। रेल या वायुमार्ग से यहां तक आसानी से पहुंचा जा सकता है। यहां यात्रियों के ठहरने के लिए आरामदेह धर्मशालाएं और होटल मौज़ूद हैं। आने वाले पर्यटक अपने साथ शंख और सीपियों से बने आभूषण ज़रूर ले जाते हैं। समुद्र तट से निकट होने के कारण जून में यहां का मौसम सुहावना हो जाता है।

गांधारी के श्राप से द्वारकापुरी समुद्र में विलीन हो गई:

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धार्मिक महत्ता के साथ इस नगर के साथ कई रहस्य भी जुड़े हुए हैं। समस्त यदुवंशियों के मारे जाने और द्वारका के समुद्र में विलीन होने के पीछे मुख्य रूप से दो घटनाएं जिम्मेदार है। एक माता गांधारी द्वारा श्री कृष्ण को दिया गया श्राप और दूसरा ऋषियों द्वारा श्री कृष्ण पुत्र सांब को दिया गया श्राप। भगवान विष्णु के श्रीकृष्ण अवतार की समाप्ति के साथ ही पृथ्वी पर उनकी बसाई हुई यह नगरी समुद्र में डूब गई। ऐसी मान्यता है कि कौरवों के पिता महाराज धृतराष्ट्र की पत्नी गांधारी ने भगवान श्रीकृष्ण को यह शाप दिया था कि जैसे मेरे कौरव कुल का नाश हो गया है, वैसे ही समस्त यदुवंश भी नष्ट हो जाएगा। इसी वजह से महाभारत युद्ध के बाद द्वारकापुरी समुद्र में विलीन हो गई। समुद्र में हजारों फीट नीचे द्वारका नगरी के अवशेष मिले हैं। श्री कृष्ण की नगरी द्वारका महाभारत युद्ध के 36 वर्ष पश्चात समुद्र में डूब जाती है। द्वारका के समुद्र में डूबने से पूर्व श्री कृष्ण सहित सारे यदुवंशी भी मारे जाते है।

निकटवर्ती तीर्थ:

गोमती द्वारका

द्वारका के दक्षिण में एक लम्बा तालाब है। जिसे 'गोमती तालाब' कहते है। इसके नाम पर ही द्वारका को गोमती द्वारका कहते है। गोमती के नौ घाट, सांवलियां जी का मंदिर, गोवर्धन नाथ जी का मंदिर और संगम घाट है। इसके उत्तर में समुद्र के ऊपर एक और घाट है, जिसे चक्रतीर्थ कहा जाता है। यहां आने वाले भक्तजन भेंट द्वारका के दर्शन करने अवश्य जाते हैं। ऐसी मान्यता है कि इस स्थल के दर्शन किए बिना यह तीर्थयात्रा पूर्ण नहीं मानी जाती। यहां जल या सड़क मार्ग के ज़रिये आसानी से पहुंचा जा सकता है। इसी तीर्थ के रास्ते में गोपी तालाब भी पड़ता है, जिसकी पीली मिट्टी को गोपी चंदन कहा जाता है।

निष्पाप कुण्ड

इस गोमती तालाब के ऊपर नौ घाट है। इनमें सरकारी घाट के पास एक कुण्ड है, जिसका नाम निष्पाप कुण्ड है। इसमें गोमती का पानी भरा रहता है। नीचे उतरने के लिए पक्की सीढ़िया बनी है। यात्री सबसे पहले इस निष्पाप कुण्ड में नहाकर अपने को शुद्ध करते है। बहुत-से लोग यहां अपने पुरखों के नाम पर पिंड-दान भी करतें हैं।

रणछोड़ जी मंदिर

गोमती के दक्षिण में पांच कुंए है। निष्पाप कुण्ड में नहाने के बाद यात्री इन पांच कुंओं के पानी से कुल्ले करते है। तब रणछोड़जी के मन्दिर की ओर जाते है। रास्तें में कितने ही छोटे मन्दिर पड़ते है-कृष्णजी, गोमती माता और महालक्ष्मी के मन्दिर। रणछोड़जी का मन्दिर द्वारका का सबसे बड़ा और सबसे बढ़िया मन्दिर है। भगवान कृष्ण को उधर रणछोड़जी कहते है। सामने ही कृष्ण भगवान की चार फुट ऊंची मूर्ति है। यह चांदी के सिंहासन पर विराजमान है। मूर्ति काले पत्थर की बनी है। हीरे-मोती इसमें चमचमाते है। सोने की ग्यारह मालाएं गले में पड़ी है। कीमती पीले वस्त्र पहने है। भगवान के चार हाथ है। एक में शंख है, एक में सुदर्शन चक्र है। एक में गदा और एक में कमल का फूल। सिर पर सोने का मुकुट है। लोग भगवान की परिक्रमा करते है और उन पर फूल और तुलसी दल चढ़ाते है। चौखटों पर चांदी के पत्तर मढ़े है। मन्दिर की छत में बढ़िया-बढ़िया कीमती झाड़-फानूस लटक रहे हैं। एक तरफ ऊपर की मंमें जाने के लिए सीढ़िया है। पहली मंजिल में अम्बादेवी की मूर्ति है-ऐसी सात मंजिलें है और कुल मिलाकर यह मन्दिर एक सौ चालीस फुट ऊंचा है। इसकी चोटी आसमान से बातें करती है।

परिक्रमा

रणछोड़जी के दर्शन के बाद मन्दिर की परिक्रमा की जाती है। मन्दिर की दीवार दोहरी है। दो दावारों के बीच इतनी जगह है कि आदमी समा सके। यही परिक्रमा का रास्ता है। रणछोड़जी के मन्दिर के सामने एक बहुत लम्बा-चौड़ा १०० फुट ऊंचा जगमोहन है। इसकी पांच मंजिलें है और इसमें ६० खम्बे है। रणछोड़जी के बाद इसकी परिक्रमा की जाती है। इसकी दीवारे भी दोहरी है।

दुर्वासा और त्रिविक्रम मंदिर

दक्षिण की तरफ बराबर-बराबर दो मंदिर है। एक दुर्वासाजी का और दूसरा मन्दिर त्रिविक्रमजी को टीकमजी कहते है। इनका मन्दिर भी सजा-धजा है। मूर्ति बड़ी लुभावनी है। और कपड़े-गहने कीमती है। त्रिविक्रमजी के मन्दिर के बाद प्रधुम्नजी के दर्शन करते हुए यात्री इन कुशेश्वर भगवान के मन्दिर में जाते है। मन्दिर में एक बहुत बड़ा तहखाना है। इसी में शिव का लिंग है और पार्वती की मूर्ति है।

कुशेश्वर मंदिर

कुशेश्वर शिव के मन्दिर के बराबर-बराबर दक्षिण की ओर : मन्दिर और है। इनमें अम्बाजी और देवकी माता के मन्दिर खास हैं। रणछोड़जी के मन्दिर के पास ही राधा, रूक्मिणी, सत्यभामा और जाम्बवती के छोटे-छोटे मन्दिर है। इनके दक्षिण में भगवान का भण्डारा है और भण्डारे के दक्षिण में शारदा-मठ है।