जानिए बाबा खाटू श्याम मंदिर के इतिहास के बारे में
हिन्दू धर्म के अनुसार, खाटू श्याम जी ने कलियुग में श्री कृष्ण से वरदान प्राप्त किया था कि वे कलयुग में उनके नाम श्याम से पूजे जाएँगे। श्री कृष्ण बर्बरीक के महान बलिदान से काफ़ी प्रसन्न हुए और वरदान दिया कि जैसे-जैसे कलियुग का अवतरण होगा, तुम श्याम के नाम से पूजे जाओगे।
हिन्दू धर्म के अनुसार, खाटू श्याम जी ने कलियुग में श्री कृष्ण से वरदान प्राप्त किया था कि वे कलयुग में उनके नाम श्याम से पूजे जाएँगे। श्री कृष्ण बर्बरीक के महान बलिदान से काफ़ी प्रसन्न हुए और वरदान दिया कि जैसे-जैसे कलियुग का अवतरण होगा, तुम श्याम के नाम से पूजे जाओगे। तुम्हारे भक्तों का केवल तुम्हारे नाम का सच्चे दिल से उच्चारण मात्र से ही उद्धार होगा। यदि वे तुम्हारी सच्चे मन और प्रेम-भाव से पूजा करेंगे तो उनकी सभी मनोकामना पूर्ण होगी और सभी कार्य सफ़ल होंगे।
श्री श्याम बाबा की अपूर्व कहानी मध्यकालीन महाभारत से आरम्भ होती है। वे पहले बर्बरीक के नाम से जाने जाते थे। वे अति बलशाली गदाधारी भीम के पुत्र घटोत्कच और दैत्य मूर की पुत्री मोरवी के पुत्र हैं। बाल्यकाल से ही वे बहुत वीर और महान योद्धा थे। उन्होंने युद्ध कला अपनी माँ तथा श्री कृष्ण से सीखी। नव दुर्गा की घोर तपस्या करके उन्हें प्रसन्न किया और तीन अमोघ बाण प्राप्त किये। इस प्रकार तीन बाणधारी के नाम से प्रसिद्ध नाम प्राप्त किया। अग्निदेव प्रसन्न होकर उन्हें धनुष प्रदान किया, जो उन्हें तीनों लोकों में विजयी बनाने में समर्थ थे।
महाभारत का युद्ध कौरवों और पाण्डवों के मध्य अपरिहार्य हो गया था, यह समाचार बर्बरीक को प्राप्त हुए तो उनकी भी युद्ध में सम्मिलित होने की इच्छा जागृत हुई। जब वे अपनी माँ से आशीर्वाद प्राप्त करने पहुँचे तब माँ को हारे हुए पक्ष का साथ देने का वचन दिया। वे अपने नीले रंग के घोड़े पर सवार होकर तीन बाण और धनुष के साथ कुरूक्षेत्र की रणभूमि की ओर चल पड़े।
सर्वव्यापी श्री कृष्ण ने ब्राह्मण भेष धारण कर बर्बरीक के बारे में जानने के लिए उन्हें रोका और यह जानकर उनकी हँसी उड़ायी कि वह मात्र तीन बाण से युद्ध में सम्मिलित होने आया है। ऐसा सुनकर बर्बरीक ने उत्तर दिया, "मात्र एक बाण शत्रु सेना को परास्त करने के लिए पर्याप्त है और ऐसा करने के बाद बाण वापस तूणीर में ही आएगा। यदि तीनों बाणों को प्रयोग में लिया गया तो पूरे ब्रह्माण्ड का विनाश हो जाएगा।"
यह जानकर भगवान कृष्ण ने उन्हें चुनौती दी की इस वृक्ष के सभी पत्तों को वेधकर दिखलाओ। वे दोनों पीपल के वृक्ष के नीचे खड़े थे। बर्बरीक ने चुनौती स्वीकार की और अपने तूणीर से एक बाण निकाला और ईश्वर को स्मरण कर बाण पेड़ के पत्तों की ओर चलाया। बाण ने क्षणभर में पेड़ के सभी पत्तों को वेध दिया और श्री कृष्ण के पैर के इर्द-गिर्द चक्कर लगाने लगा, क्योंकि एक पत्ता उन्होंने अपने पैर के नीचे छुपा लिया था।
बर्बरीक ने कहा- "आप अपने पैर को हटा लीजिए अन्यथा ये बाण आपके पैर को भी वेध देगा।"
तत्पश्चात, श्री कृष्ण ने बालक बर्बरीक से पूछा, "तुम युद्ध में किस ओर से सम्मिलित होंगे।"
बर्बरीक ने अपनी माँ को दिये वचन को दोहराया और कहा- "युद्ध में जो पक्ष निर्बल और हार रहा होगा उसी को अपना साथ दूंगा।"
श्री कृष्ण जानते थे कि युद्ध में हार तो कौरवों की निश्चित है और इस कारण अगर बर्बरीक ने उनका साथ दिया तो परिणाम गलत पक्ष में चला जाएगा।
अत: ब्राह्मणरूपी श्री कृष्ण ने वीर बर्बरीक से दान की अभिलाषा व्यक्त की। बर्बरीक ने उन्हें वचन दिया और दान माँगने को कहा। ब्राह्मण ने उनसे शीश का दान माँगा। वीर बर्बरीक क्षण भर के लिए अचम्भित हुए, परन्तु अपने वचन से अडिग नहीं हो सकते थे।
वीर बर्बरीक बोले, "एक साधारण ब्राह्मण इस तरह का दान नहीं माँग सकता है", अत: उन्होंने ब्राह्मण से अपने वास्तिवक रूप से अवगत कराने की प्रार्थना की। ब्राह्मणरूपी श्री कृष्ण अपने वास्तविक रूप में आ गये।
श्री कृष्ण ने बर्बरीक को शीश दान माँगने का कारण समझाया कि युद्ध आरम्भ होने से पूर्व युद्धभूमि पूजन के लिए तीनों लोकों में सर्वश्रेष्ठ क्षत्रिय के शीश की आहुति देनी होती है, इसलिए ऐसा करने के लिए वे विवश थे।
बर्बरीक ने उनसे प्रार्थना की कि वे अन्त तक युद्ध देखना चाहते हैं। श्री कृष्ण ने उनकी यह प्रार्थना स्वीकार कर ली। श्री कृष्ण इस बलिदान से प्रसन्न होकर बर्बरीक को युद्ध में सर्वश्रेष्ठ वीर की उपाधि से अलंकृत किया। उनके शीश को युद्धभूमि के समीप ही एक पहाड़ी पर सुशोभित किया गया। जहाँ से बर्बरीक सम्पूर्ण युद्ध का जायजा ले सकते थे। फाल्गुन माह की द्वादशी को उन्होंने अपने शीश का दान दिया था और इस प्रकार वे शीश के दानी कहलाये।
महाभारत युद्ध की समाप्ति पर पाण्डवों में ही आपसी विवाद होने लगा कि युद्ध में विजय का श्रेय किसको जाता है? श्री कृष्ण ने उनसे कहा- "बर्बरीक का शीश सम्पूर्ण युद्ध का साक्षी है, अतएव उससे बेहतर निर्णायक भला कौन हो सकता है?"
सभी इस बात से सहमत हो गये और पहाड़ी की ओर चल पड़े, वहाँ पहुँचकर बर्बरीक के शीश ने उत्तर दिया, "श्री कृष्ण ही युद्ध में विजय प्राप्त कराने में सबसे महान पात्र हैं, उनकी शिक्षा, उपस्थिति और युद्धनीति ही निर्णायक थी।"
उन्हें युद्धभूमि में सिर्फ उनका सुदर्शन चक्र घूमता हुआ दिखायी दे रहा था जो शत्रु सेना को काट रहा था। इसके बाद महाकाली, श्री कृष्ण के आदेश पर शत्रु सेना के रक्त से भरे प्यालों का सेवन कर रही थीं।
श्री कृष्ण वीर बर्बरीक के महान बलिदान से काफी प्रसन्न हुए और वरदान दिया कि कलियुग में तुम श्याम नाम से जाने जाओगे, क्योंकि उस युग में हारे हुए का साथ देने वाला ही श्याम नाम धारण करने में समर्थ है।
उनका शीश खाटू नगर (वर्तमान राजस्थान राज्य के सीकर जिला) में दफ़नाया गया इसलिए उन्हें खाटू श्याम बाबा कहा जाता है। एक गाय उस स्थान पर आकर रोज अपने स्तनों से दुग्ध की धारा स्वतः ही बहा रही थी। बाद में खुदाई के बाद वह शीश प्रकट हुआ, जिसे कुछ दिनों के लिए एक ब्राह्मण को सूपुर्द कर दिया गया।
एक बार खाटू नगर के राजा को स्वप्न में मन्दिर निर्माण के लिए और वह शीश मन्दिर में सुशोभित करने के लिए प्रेरित किया गया। इसके पश्चात उस स्थान पर मन्दिर का निर्माण किया गया और कार्तिक माह की एकादशी को शीश मन्दिर में सुशोभित किया गया, जिसे बाबा श्याम के जन्मदिन के रूप में मनाया जाता है।
हर साल लगता है खाटूश्याम मेला:
प्रत्येक वर्ष होली के दौरान खाटू श्यामजी का मेला लगता है। इस मेले में देश-विदेश से भक्तजन बाबा खाटू श्याम जी के दर्शन के लिए आते हैं। इस मंदिर में भक्तों की गहरी आस्था है। बाबा श्याम, हारे का सहारा, लखदातार, खाटूश्याम जी, मोर्विनंदन, खाटू का नरेश और शीश का दानी इन सभी नामों से खाटू श्याम को उनके भक्त पुकारते हैं। खाटूश्याम जी मेले का आकर्षण यहां होने वाली मानव सेवा भी है। बड़े से बड़े घराने के लोग आम आदमी की तरह यहां आकर श्रद्धालुओं की सेवा करते हैं। कहा जाता है ऐसा करने से पुण्य की प्राप्ति होती है।
छवि स्रोत पत्रिका
खाटूश्याम जी के चमत्कार:
भक्तों की इस मंदिर में इतनी आस्था है कि वह अपने सुखों का श्रेय उन्हीं को देते हैं। भक्त बताते हैं कि बाबा खाटू श्याम सभी की मुरादें पूरी करते हैं। खाटूधाम में आस लगाने वालों की झोली बाबा खाली नहीं रखते हैं।00