स्वर्ग के दर्शन (Vision of Heaven Story)
एक छोटे से शहर में सत्यमूर्ति नाम का लड़का रहता था। वह बहुत भोला था। वह प्रतिदिन रात में सोने से पहले अपनी दादी से कहानी सुनाने को कहता था। दादी उसे नागलोक, पाताललोक, सूर्यलोक, आदि की कहानी सुनाया करती थी। एक दिन दादी ने उसे स्वर्ग का वर्णन सुनाया।
एक छोटे से शहर में सत्यमूर्ति नाम का लड़का रहता था। वह बहुत भोला था। वह प्रतिदिन रात में सोने से पहले अपनी दादी से कहानी सुनाने को कहता था। दादी उसे नागलोक, पाताललोक, सूर्यलोक, आदि की कहानी सुनाया करती थी। एक दिन दादी ने उसे स्वर्ग का वर्णन सुनाया। स्वर्ग का वर्णन इतना सुंदर था! कि उसे सुनकर सत्यमूर्ति स्वर्ग देखने के लिए हठ करने लगा।
दादी ने उसे बहुत समझाया कि मनुष्य स्वर्ग नहीं देख सकता, किंतु सत्यमूर्ति रोने लगा और रोते-रोते ही सो गया। उसे सपने में एक चमकते हुए एक देवता दिखाई दिए और उसके पास खड़े होकर कह रहे थे, "बच्चे! स्वर्ग देखने के लिए मूल्य देना पड़ता है। जब तुम सर्कस देखने जाते हो तो टिकट देते हो ना? स्वर्ग देखने के लिए भी तुम्हें उसी प्रकार रुपए देने पड़ेंगे।"
सपने में ही सत्यमूर्ति सोचने लगा कि मैं दादी से रुपए मांग लूंगा। लेकिन देवता ने कहा- "स्वर्ग में तुम्हारे रुपए नहीं चलते। यहां तो भलाई और पुण्य कर्मों का रुपया चलता है। फिर वह कहने लगे अच्छा! तुम यह डिबिया अपने पास रखो जब तुम कोई अच्छा काम करोगे तो इसमें एक रुपया आ जाएगा और जब कोई बुरा काम करोगे तो एक रुपया इसमें से उड़ जाएगा। जब यह डिबिया भर जाएगी तब तुम स्वर्ग देख सकोगे।"
जब सत्यमूर्ति की नींद टूटी तो उसने अपने सिरहाने सचमुच एक डिबिया देखी। डिबिया लेकर वह बड़ा प्रसन्न हुआ। उस दिन दादी ने उसे एक पैसा दिया। पैसा लेकर वह घर से निकला। एक भिखारी उससे पैसा मांगने लगा। सत्यमूर्ति भिखारी को बिना पैसे दिए भाग जाना चाहता था। इतने में उसने अपने अध्यापक को सामने से आते देखा। उसके अध्यापक दानी लड़कों की बहुत प्रशंसा किया करते थे। उन्हें देखकर सत्यमूर्ति ने भिखारी को पैसा दे दिया। अध्यापक ने उसकी पीठ ठोकी और प्रशंसा की।
घर लौटकर सत्यमूर्ति ने वह डिबिया खोली, किंतु वह खाली पड़ी थी। इस बात से सत्यमूर्ति को बहुत दुख हुआ और वह रोते-रोते सो गया। सपने में उसे वही देवता फिर दिखाई दिए और बोले, "तुमने अध्यापक से प्रशंसा पाने के लिए पैसा दिया था। तुम्हे प्रशंसा मिल गई। अब रोते क्यों हो। किसी लाभ की आशा से जो अच्छा काम किया जाता है। वह तो व्यापार है। वह पुण्य थोड़ी है।"
दूसरे दिन सत्यमूर्ति को उसकी दादी ने दो आने पैसे दिए। पैसे लेकर उसने बाजार जा कर दो संतरे खरीदे। उसका साथी मोहन बीमार था। बाजार से लौटते समय वह अपने मित्र को देखने उसके घर चला गया। मोहन को देखने उसके घर वैद्य आए थे।
वैद्य जी ने दवा देकर मोहन की माता से कहा- "इसे आज संतरे का रस देना।"
मोहन की माता बहुत गरीब थी। वह रोने लगी और बोली, "मैं मजदूरी करके पेट भर्ती हूं। इस समय बेटे की बीमारी में कई दिन से काम करने नहीं जा सकी। मेरे पास संतरे खरीदने के लिए एक पैसा भी नहीं है।"
सत्यमूर्ति ने अपने दोनों संतरे मोहन की मां को दिए। वह सत्यमूर्ति को आशीर्वाद देने लगी। घर आकर जब सत्यमूर्ति ने अपनी डिबिया खोली तो उसमें दो रुपये चमक रहे थे।
एक दिन सत्यमूर्ति खेल में लगा था। उसकी छोटी बहन वहां आई और उसके खिलौनों को उठाने लगी। सत्यमूर्ति ने उसको रोका, जब वह नहीं मानी तो उसने उसे पीट दिया। उसकी बहन रोने लगी।
इस बार जब उसने डिबिया खोली तो देखा कि उसके पहले के इकट्ठे कई रुपए उड़ जाते हैं। उसे बड़ा पश्चाताप हुआ। आगे से उसने कोई बुरा काम नहीं करने का पक्का निश्चय कर लिया।
सत्यमूर्ति पहले रुपए के लोभ से अच्छा काम करता था। धीरे-धीरे उसका स्वभाव ही अच्छा काम करने का हो गया, अच्छा काम करते-करते उसकी डिबिया रुपयों से भर गई। वह स्वर्ग देखने की आशा से प्रसन्न होता। उस डिबिया को लेकर वह अपने बगीचे में पहुंचा।
सत्यमूर्ति ने देखा कि बगीचे में पेड़ के नीचे बैठा हुआ। एक बूढ़ा पंडित रो रहा है। वह दौड़ता हुआ पंडित के पास गया और बोला, "बाबा! आप क्यों रो रहे हैं।"
साधू बोला, "बेटा! जैसी डिबिया तुम्हारे हाथ में है। वैसी ही एक डिबिया मेरे पास थी। बहुत दिन परिश्रम करके मैंने उसे रुपयों से भरा था। बड़ी आशा थी कि उसके रुपयों से स्वर्ग देखूंगा, किंतु आज गंगा जी में स्नान करते समय वह डिबिया पानी में गिर गई।
सत्यमूर्ति ने कहा- "बाबा! आप रो मत, मेरी डिबिया भी भरी हुई है! आप इसे ले लो।"
साधू बोला, "तुमने इसे बड़े परिश्रम से भरा है! तुम्हें इसे देने से दुख होगा।"
सत्यमूर्ति ने कहा- "मुझे दुख नहीं होगा बाबा! मैं तो लड़का हूं। मुझे अभी पता नहीं कितने दिन जीना है। मैं तो ऐसी कई डिब्बियों में रुपए इकठ्ठे कर सकता हूं। आप बुड्ढे हो गए हैं। आप अब दूसरी डिबिया पता नहीं भर पाओगे या नहीं! मेरी डिबिया ले लीजिए।"
पंडित ने डिबिया लेकर सत्यमूर्ति के नेत्रों पर हाथ फेर दिया। सत्यमूर्ति के नेत्र बंद हो गए। उसे स्वर्ग दिखाई देने लगा; वैसा ही सुंदर स्वर्ग जिस स्वर्ग का वर्णन दादी जी ने किया था।
जब सत्यमूर्ति ने नेत्र खोला तो पंडित के बदले सपने में दिखाई देने वाला वही देवता उसके सामने प्रत्यक्ष खड़ा था। देवता ने कहा- "बेटा! जो लोग अच्छे काम करते हैं, स्वर्ग उनका घर बन जाता है। तुम इसी प्रकार जीवन में भलाई करते रहोगे तो अंत में स्वर्ग में पहुंच जाओगे।"
कहानी से सीख: इस कहानी से हमें यह सीख मिलती है कि हमें अच्छे काम करने चाहिए और लोगो की मदद करनी चाहिए। इसका पुण्य हमें जीवन में जरुर मिलता है।